Kabir Vani (काव्य)
माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का
मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज
रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप
बचाया अपना चेरो
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आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए
भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने
तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको
दुख भारी
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चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के
बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश
पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस
डाले संसारी
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कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू
से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो
होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम
ज्ञान का मारै डंडा
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